पल्लवन किसे कहते है/ पल्लवन की विशेषताएं/Amplification पल्लवन/Pallvan/

 Amplification पल्लवन



हिन्दी भाषा में लेखन कला के अन्तर्गत अनेक शैलियों, रूपों तथा अंगो का विशेष महत्व होता है। पल्लवन या विस्तारण ही लेखन कला का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। पल्लवन का अंग्रेजी पर्याय Amplification है जिसका अर्थ विस्तार या वृद्धिकरण ही है। पल्लवन के लिए हिन्दी भाषा में अन्य नाम भी प्रचलित है।

यथा वृद्धिवर्धन, विचार-विस्तार, भावविस्तार, विस्तार एवं विस्तारण आदि।

पल्लवन वास्तव में संक्षेपण का विपरीतार्थक शब्द है। संक्षेपण में है विस्तृत विचारों को संक्षेप में लिखना होता है अर्थात् बड़े कथनों का संक्षिप्तिकरण करना होता है परन्तु पल्लवन में संक्षिप्त सारगर्भित एवं किसी गंभीर उक्ति को इतनी विस्तार पूर्वक शैली में समझाया जाता है कि उस उक्ति अथवा कथन का स्पष्ट अर्थ समझ में  आ जाये और अनावश्यक विस्तार का बोध भी न होने पाये।

पल्लवन का अर्थ है विस्तार अथवा फैलाव । यह संक्षेपण का विरुद्धार्थी है। पल्लवन की विशेषताओं को इस प्रकार लिखा जा सकता है:

(1) कल्पनाशीलता - पल्लवन करते समय लेखक कल्पनाशीलता का सहारा लेता है। कल्पना के सहारे सूक्ति अथवा उद्धरण का भाव विस्तार करता है। परंतु पल्लवन में विषय का विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत किया जाता है।

(2) मौलिकता - पल्लवन में मौलिकता का ध्यान रखा जाता है।

(3) सर्जनात्मकता - पल्लवन में लेखक को सर्जनात्मकता का अवसर व संतोष दोनों मिलते हैं।

(4) प्रवाहमयता - पल्लवन लेखन में प्रवाहमयता होना आवश्यक है। लेखक इस बात का ध्यान रखता है कि पाठक को पढ़ते समय बीच-बीच में किसी प्रकार का अवरोध अनुभव न हो।

(5)भाषा-शैली - पल्लवन करते समय लेखक को भाषा ज्ञान व भाषा का विस्तार जानना आवश्यक है। साथ ही विश्लेषण, संश्लेषण, तार्किक क्षमता के साथ-साथ अभिव्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता होती है।

(6) शब्द चयन - पल्लवन में शब्द चयन का बहुत अधिक महत्त्व है। तर्कसंगत और सम्मत शब्दों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। लेखक को शृंखलाबद्ध, रोचक एवं उत्सुकता से परिपूर्ण वाक्य लिखने चाहिए। छोटे-छोटे वाक्यों या वाक्य खंडों में बंद विचारों को खोल देना, फैला देना, विस्तृत कर देना ही पल्लवन है।

(7) क्रमबद्धता - पल्लवन में विचारों में, अभिव्यक्ति में क्रमबद्धता का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता है।

(8) सहजता - पल्लवन का सहज रूप सभी को आकर्षित करता है।

(9) स्पष्टता - पल्लवन में स्पष्टता का होना अति आवश्यक है। जिस भी विचार, अंश, लोकोक्ति आदि का पल्लवन किया जा रहा है, केंद्र में वही रहना चाहिए। पाठक को पल्लवन पढ़ते समय ऐसा प्रतीत न हो कि मूल विचार कुछ और है, जबकि पल्लवन का प्रवाह किसी अन्य दिशा में जा रहा है।

Method Of Amplification

पल्लवन बनाने कि विधि

1. पल्लवन लिखने में शीघ्रता कदापि नहीं करना चाहिए। सर्वप्रथम मूल भाव निहित कथन  अथवा सुक्ति में जो कठिन शब्द हो,  लक्षणा अथवा व्यंजना शब्द शक्तियों में कोई बात कही गयी हो उसे ठीक प्रकार से समझना चाहिए और उसके पश्चात् ही लिखना प्रारंभ करना चाहिए। 

2. मूलभाव के तात्पर्य को विद्यगम  करके धीरे-धीरे भाव विस्तार करना चाहिए। 

3. विषय क्रम को क्रमशः बढ़ाया जाना चाहिए। उसमें विचारों की सम्बद्धता अत्यंत आवश्यक है।

4.  विस्तारण करते समय मूल भाव में किस प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए ।

5.  पल्लवण पल्लवन में पुनराविति अलंकार कि कठिन भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी बात को बार बार दुहराने से मूलभाव अस्पष्ट हो जाता है।

6. पल्लवन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि सभी आवश्यक बातों पर ध्यान आकृत किया जा सके और मूल भाव की सुरक्षा भी बनी रहे।

7.  पल्लवन के अन्तर्गत व्याख्या अथवा विश्लेषण जैसी प्रक्रिया को नहीं अपना अपनाया जाना चाहिए।

8. पल्लवन में सुबोध गम्यता, विचार  प्रौढ़ता, मौलिकता तथा बौद्धिक  क्षमता की आवश्यकता है। अतएव लेखक को इन सभी गुणों का अभ्यास करना चाहिए।

1. दुःख ही भगवान का अमृत है! –विवेकानन्द

'लेखक के अनुसार - दुःख भगवान के द्वारा प्रदान किया गया एक वरदान है। यह वरदान ही व्यक्ति को उसकी वास्तविकता से अवगत करता है। बिना दु:ख है व्यक्ति की अहम् भावना नष्ट नहीं होती है दु:ख में व्यक्ति का अहम भाव नष्ट हो जाता है जो अन्य किली औषधि से दूर नहीं किया जा सकता ।अतः वास्तव  दुःख की भगवान का अवत कहना उचित ही है।

2. मन के हारे हार है मन के जीते जीत !

पल्लवन- संसार वस्तुत: एक ऐसी विस्तृत कर्म स्थली है जहाँ व्यक्ति को आजीवन अनेक कार्य करने पड़ते है। उत्तम कोटि के व्यक्ति अपने कार्यो में तब तक तल्लीन रहते हैं जब तक अपने कार्यो में सफलता प्राप्त नहीं कर लेते मार्ग में आने वाली बाधाओ से न तो वे घबराते है और न कार्य को बीच में बंद करते है। उनका मन ती साहस तथा उत्साह की अंग से परिपूर्ण रहता है। इसके विपीत निम्न कोटि के व्यक्ति कार्य आरंभ करते ह परन्तु मार्ग में कोई भी बाधा या आपत्ति आने पर उनका मन घबरा जाता है और वे अपने कार्यों को बीच में ही समाप्त कर देते हैं जो व्यक्ति मन से पराजित है अर्थात जिसके मन में निराशा या  आशंका होती है वह जीवन संग्राम से भी हार मान लेता है परन्तु जिसका मन उत्साही  है वही व्यक्ति  इस संसार में जीने योग्य है। मनोवैज्ञानिक सत्य यही  है कि व्यक्ति को अपना मन संयमित  रखना चाहिए।

3. कुबेर कोष से नहीं अपितु श्रध्दावान बनते ही मनुष्य, मनुष्य कहलाता है! 

 निर्देश - उपर्युक्त कथन  में 'कुबेर कोष', 'श्रध्दावान्' तथा 'मनुष्य' महत्वपूर्ण शब्द है लेखक को सर्वप्रथम इनके ठीक अर्थों पर विचार करना चाहिए ।

1. कुबेर कोष – अतुलित धन ।

( संसार मे जन्म लेकर मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य   केवल अधिकाधिक धन कमाना  नहीं है ।)

2. श्रध्दावान - श्रध्दा को जानने वाला।

 जिस व्यक्ति के मन में श्रद्धा  होती है उसी  में मानोचित गुण दिखाई देते है। श्रद्धा श्रेष्ठ पुरूषों के आभूषण होती है। 

3. मनुष्य - सच्चा मानव । दुष्टता, पशुत्व एवं दुर्गुणों से दूर होकर ही मानव मानव बन सकता है।

पल्लवन– मनुष्य को पशुत्व से पृथक करने वाले उत्तम गुणों में श्रद्धा का सर्वोपरि है। श्रद्धा केवल उसी मनुष्य  के हृदय में स्थान पा सकती है जो उच्चाशय वाला,  उदार, पर दुख कातर परोपकारकारी तथा अहम शून्य होता है। मनुष्य के जीवन में धर्म, अर्थ, काम मोक्ष चारों कर्मों की उपयोगिता  आवश्यक है  परन्तु मनुष्य की  सबसे उपलब्धि  मोक्ष ही कही जाती है। मोक्ष  की प्राप्ति श्रद्धावान  बनने से ही हो  सकती है  क्योंकि सच्ची  श्रध्दा ही मनुष्य के हदय में ईश्वर के प्रति विश्वास, मानव सेवा तथा महानता  को उत्पन्न करती है। वास्तव में अतुलित वैभव में पलकर कुबेर कोष को प्राप्त करके भी श्रद्धा रहित व्यक्ति सदैव निर्धन और कृपण बना रहता है।

4. बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय।

पल्लवन:- कोई भी कार्य बिना विचार किये नहीं करना चाहिए। विचार के अभाव में कार्य को सही दिशा प्राप्त नहीं हो पाती है। विचार करने से कार्य का उद्देश्य सुनिश्चित हो जाता है। इससे कार्य-संबंधी मज़बूत एवं कमज़ोर पक्ष स्पष्ट हो जाते है।

फलतः कार्य की एक रूपरेखा तैयार हो जाती है, जिससे कार्य करना आसान हो जाता है। कार्य की सफलता की संभावना भी प्रबल हो जाती है। इसलिए, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पहले खूब विचार-विमर्श करना चाहिए, जिससे इस निर्णय के प्रभाव को समझा जा सके।

जो व्यक्ति उचित-अनुचित का विचार कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है, वह अपने निर्णय से सदैव संतुष्ट रहता है। इसके विपरीत किसी उत्तेजना अथवा क्रोध में लिए गए निर्णय भविष्य में पश्चात्ताप का कारण बनते है।

इसी प्रकार बिना विचार किये, जब किसी कार्य को किया जाता है, तो जानकारी के अभाव में अक्सर उस कार्य में असफलता हाथ प्राप्त होती है तथा अंततः पश्चात्ताप ही करना पड़ता है।


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