कारक
सीता ने गुड़िया खरीदी।
चिड़िया पिंजरे से उड़ गई।
बच्चे बिस्तर पर बैठे हैं।
माता जी चिड़िया के लिए दाना लाईं।
शेर जंगल का राजा है।
नेहा साइकिल से स्कूल जा रही है।
उपर्युक्त सभी वाक्यों में कोई न कोई क्रिया है, जिसका संबंध 'सीता, पिंजरे, बिस्तर, चिडिया,जंगल, और साइकिल' संज्ञा पद से हैं। इनका क्रिया से संबंध बताने के लिए 'ने, से, पर, के लिए, का, से' चिह्नों का प्रयोग उन चिह्नों को ही कारक-चिह्न कहते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों में से यदि कारक चिह्न हटा दिया जाएँ, तो वाक्य अपना अर्थ खो देता है; जैसे-
1. सीता गुड़िया खरीदी।
2. चिड़िया पिंजरे उड़ गई।
3 बच्चे बिस्तर बैठे हैं।
4. माता जी चिड़िया दाना लाईं।
5. शेर जंगल राजा है।
6. नेहा साइकिल स्कूल जा रही है।
ये वाक्य स्पष्ट रूप से अर्थ प्रकट नहीं कर रहें हैं। अतः ये अर्थहीन वाक्य हैं।
अत: हम कह सकते हैं कि-
संज्ञा या सर्वनाम का क्रिया के साथ संबंध जोड़ने वाले शब्द कारक कहलाते है।
क्रिया पर विशेष ध्यान देते हुए निम्नलिखित वाक्यों को पढ़िए-
अशुद्ध वाक्य - सुरेंद्र पुस्तक पढ़ी।
शुद्ध वाक्य-सुरेंद्र ने पुस्तक पढ़ी।
अशुद्ध वाक्य - अध्यापक बच्चों पढ़ाते हैं।
शुद्ध वाक्य-अध्यापक बच्चों को पढ़ाते हैं।
अशुद्ध वाक्य - मैंने लाठी साँप मारा।
शुद्ध वाक्य - मैंने लाठी से साँप मारा।
अशुद्ध वाक्य - मैंनेने रमेश पुस्तक खरीदी।
शुद्व वाक्य - मैंने रमेश के लिए पुस्तक खरीदी।
अशुद्ध वाक्य - हिमालय से गंगा निकलती है।
शुद्ध वाक्य - हिमालय गंगा निकलती है।
वाक्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर स्वतः महसूस किया जा सकता है कि इनमें प्रत्येक पहले वाक्य गलत और अपूर्ण है ।यहां तक कि वाक्यों का पूरी तरह अर्थ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। प्रत्येक दूसरे वाक्यों को पढ़ने पर वाक्य के अर्थ को सही - सही ग्रहण किया जा सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि कारक संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि का संबंध जोड़कर वाक्य बनाने का कार्य करते है।
विभक्तियाँ या परसर्ग- संज्ञा और सर्वनाम का संबंध क्रिया या दूसरे शब्दों से बताने के लिए उनके साथ जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें परसर्ग या विभक्ति कहते हैं; जैसे- ने, को, से, के लिए, में, पर, का, की, हे, अरे आदि।
कारक के आठ भेद होते हैं-
1. कर्ता कारक
2.कर्म कारक
3. करण कारक
4. संप्रदान कारक
5. अपादान कारक
6. संबंध कारक
7. अधिकरण कारक
8. संबोधन कारक
क्रम कारक विभक्ति
1. कर्ता ने
2. कर्म को
3.करण से,के द्वारा
4.संप्रदान। के लिए,को
5.अपादान से(अलग)
6. संबंध। का,के,की; रा, रे, री
7.अधिकरण में, पर, ऊपर।
8.संबोधन हे, ओ,अरे।
दादी माँ रामायण पढ़ती हैं।
रोहन ने हॉकी खेली।
उपर्युक्त वाक्यों में हॉकी खेलने का काम 'रोहन' कर रहा है और रामायण पढ़ने का काम 'दादी माँ' कर रही हैं। पहले में कर्ता का कारक चिह्न 'ने' लगा है, लेकिन दूसरे वाक्य में कारक चिह्न का प्रयोग नहीं हुआ है। अर्थात 'ने' शून्य है यदि पद सकर्मक हो और भूतकाल में हो तभी 'ने' विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे- परसर्ग रहित- कविता भूल गई।
(अकर्मक क्रिया, भूतकाल)
(सकर्मक क्रिया, भूतकाल)
4. पिता जी ने पत्र लिखा
परसर्ग सहित
2. बच्चे ने दूध पिया।
कविता ने पाठ पढ़ा।
1. रमा सेब खाती है।
3. गीतिका ने खीर बनाई।
विशेष 'ने' परसर्ग केवल भूतकाल की सकर्मक क्रिया के साथ ही लगता है।
कर्ता कारक
जो वाक्य में कार्य करता है, उसे कर्ता कहा जाता है। अथार्त वाक्य के जिस रूप से क्रिया को करने वाले का पता चले, उसे कर्ता कहते हैं।
दूसरे शब्द में – क्रिया का करने वाला ‘कर्ता’ कहलाता है।
कर्ता कारक की विभक्ति ‘ने’ होती है। ‘ने’ विभक्ति का प्रयोग भूतकाल की क्रिया में किया जाता है। कर्ता स्वतंत्र होता है। कर्ता कारक में ने विभक्ति का लोप भी होता है। इस ‘ने’ चिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है। इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है।
जैसे –
1. राम ने रावण को मारा।
2. लड़की स्कूल जाती है।
पहले वाक्य में क्रिया का कर्ता राम है। इसमें ‘ने’कर्ता कारक का विभक्ति-चिह्न है। इस वाक्य में ‘मारा’भूतकाल की क्रिया है। ‘ने’का प्रयोग प्रायः भूतकाल में होता है। दूसरे वाक्य में वर्तमानकाल की क्रिया का कर्ता लड़की है। इसमें ‘ने’विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ है।
कर्म कारक
जिस संज्ञा या सर्वनाम पर क्रिया का प्रभाव पड़े, उसे कर्म कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – वाक्य में क्रिया का फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते है।
इसकी विभक्ति ‘को’ है। लेकिन कहीं-कहीं पर कर्म का चिन्ह लोप होता है।
जैसे- माँ बच्चे को सुला रही है।
इस वाक्य में सुलाने की क्रिया का प्रभाव बच्चे पर पड़ रहा है। इसलिए ‘बच्चे को’ कर्म कारक है।
राम ने रावण को मारा।
यहाँ ‘रावण को’ कर्म है।
बुलाना, सुलाना, कोसना, पुकारना, जमाना, भगाना आदि क्रियाओं के प्रयोग में अगर कर्म संज्ञा हो, तो ‘को’ विभक्ति जरुर लगती है।
जैसे –
(i) अध्यापक, छात्र को पीटता है।
(ii) सीता फल खाती है।
(iii) ममता सितार बजा रही है।
(iv) राम ने रावण को मारा।
(v) गोपाल ने राधा को बुलाया।
(vi) मेरे द्वारा यह काम हुआ।
करण कारक
जिस वस्तु की सहायता से या जिसके द्वारा कोई काम किया जाता है, उसे करण कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – वाक्य में जिस शब्द से क्रिया के सम्बन्ध का बोध हो, उसे करण कारक कहते है। इसकी विभक्ति ‘से’ है।
‘करण’ का अर्थ है ‘साधन’। अतः ‘से’ चिह्न वहीं करणकारक का चिह्न है, जहाँ यह ‘साधन’ के अर्थ में प्रयुक्त हो।
जैसे –
हम आँखों से देखते है।
इस वाक्य में देखने की क्रिया करने के लिए आँख की सहायता ली गयी है। इसलिए आँखों से करण कारक है।
हिन्दी में करणकारक के अन्य चिह्न है – से, द्वारा, के द्वारा, के जरिए, के साथ, के बिना इत्यादि। इन चिह्नों में अधिकतर प्रचलित से’, ‘द्वारा’, ‘के द्वारा’ ‘के जरिए’ इत्यादि ही है।
सम्प्रदान कारक
जिसके लिए कोई क्रिया (काम) की जाती है, उसे सम्प्रदान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – जिसके लिए कुछ किया जाय या जिसको कुछ दिया जाय, इसका बोध करानेवाले शब्द के रूप को सम्प्रदान कारक कहते है। इसकी विभक्ति ‘को’ और ‘के लिए’ है।
सम्प्रदान कारक का अर्थ होता है – देना। जिसके लिए कर्ता काम कर्ता है, उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं। सम्प्रदान कारक के विभक्ति चिन्ह के लिए और को होता है। इसको ‘किसके लिए’ प्रश्नवाचक शब्द लगाकर भी पहचाना जा सकता है। समान्य रूप से जिसे कुछ दिया जाता है या जिसके लिए कोई कार्य किया जाता है, उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं।
जैसे –
(i) गरीबों को खाना दो।
(ii) मेरे लिए दूध लेकर आओ।
(iii) माँ बेटे के लिए सेब लायी।
अपादान कारक
जिससे किसी वस्तु का अलग होना पाया जाता है, उसे अपादान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – संज्ञा के जिस रूप से किसी वस्तु के अलग होने का भाव प्रकट होता है, उसे अपादान कारक कहते है।
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से अलग होना, उत्पन्न होना, डरना, दूरी, लजाना, तुलना करना आदि का पता चलता है, उसे अपादान कारक कहते हैं। इसका विभक्ति चिन्ह से होता है। इसकी पहचान ‘किससे’ जैसे प्रश्नवाचक शब्द से भी की जा सकती है।
इसकी विभक्ति ‘से’ है।
जैसे-
दूल्हा घोड़े से गिर पड़ा।
इस वाक्य में ‘गिरने’ की क्रिया ‘घोड़े से’ हुई अथवा गिरकर दूल्हा घोड़े से अलग हो गया। इसलिए ‘घोड़े से’ अपादान कारक है।
जिस शब्द में अपादान की विभक्ति लगती है, उससे किसी दूसरी वस्तु के पृथक होने का बोध होता है।
जैसे-
हिमालय से गंगा निकलती है।
मोहन ने घड़े से पानी डाला।
सम्बन्ध कारक
शब्द के जिस रूप से संज्ञा या सर्वनाम के संबध का ज्ञान हो, उसे सम्बन्ध कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से किसी अन्य शब्द के साथ सम्बन्ध या लगाव प्रतीत हो, उसे सम्बन्धकारक कहते है।
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप की वजह से एक वस्तु की दूसरी वस्तु से संबंध का पता चले उसे संबंध कारक कहते हैं। इसके विभक्ति चिन्ह का, के, की, रा, रे, री आदि होते हैं। इसकी विभक्तियाँ संज्ञा, लिंग, वचन के अनुसार बदल जाती हैं।
जैसे –
(i) सीतापुर, मोहन का गाँव है।
(ii) सेना के जवान आ रहे हैं।
(iii) यह सुरेश का भाई है।
(iv) यह सुनील की किताब है।
(v) राम का लड़का, श्याम की लडकी, गीता के बच्चे।
इस कारक से अधिकतर कर्तृत्व, कार्य-कारण, मोल-भाव, परिमाण इत्यादि का बोध होता है।
जैसे –
अधिकतर –
राम की किताब, श्याम का घर।
कर्तृत्व –
प्रेमचन्द्र के उपन्यास, भारतेन्दु के नाटक।
कार्य-करण –
चाँदी की थाली, सोने का गहना।
मोल-भाव –
एक रुपए का चावल, पाँच रुपए का घी।
परिमाण –
चार भर का हार, सौ मील की दूरी, पाँच हाथ की लाठी।
अधिकरण कारक
शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का ज्ञान होता है, उसे अधिकरण कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – क्रिया या आधार को सूचित करनेवाली संज्ञा या सर्वनाम के स्वरूप को अधिकरण कारक कहते है।
अधिकरण का अर्थ होता है – आधार या आश्रय। संज्ञा के जिस रूप की वजह से क्रिया के आधार का बोध हो उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसकी विभक्ति में और पर होती है। भीतर, अंदर, ऊपर, बीच आदि शब्दों का प्रयोग इस कारक में किया जाता है।
इसकी पहचान किसमें, किसपर, किस पे आदि प्रश्नवाचक शब्द लगाकर भी की जा सकती है। कहीं-कहीं पर विभक्तियों का लोप होता है, तो उनकी जगह पर किनारे, यहाँ, वहाँ, समय आदि पदों का प्रयोग किया जाता है। कभी-कभी ‘में’ के अर्थ में ‘पर’ और ‘पर’ के अर्थ में ‘में’ लगा दिया जाता है।
जैसे –
(i) हरी घर में है।
(ii) पुस्तक मेज पर है।
(iii) पानी में मछली रहती है।
(iv) फ्रिज में सेब रखा है।
(v) कमरे के अंदर क्या है।
संबोधन कारक
जिन शब्दों का प्रयोग किसी को बुलाने या पुकारने में किया जाता है, उसे संबोधन कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में – संज्ञा के जिस रूप से किसी के पुकारने या संकेत करने का भाव पाया जाता है, उसे सम्बोधन कारक कहते है।
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से बुलाने या पुकारने का बोध हो उसे सम्बोधन कारक कहते हैं। जहाँ पर पुकारने, चेतावनी देने, ध्यान बटाने के लिए जब सम्बोधित किया जाता है, उसे सम्बोधन कारक कहते हैं। इसकी पहचान करने के लिए (!) चिन्ह लगाया जाता है। इसके चिन्ह हे, अरे, अजी आदि होते हैं। इसकी कोई विभक्ति नहीं होती है।
जैसे –
(i) हे ईश्वर! रक्षा करो।
(ii) अरे! बच्चो शोर मत करो।
(iii) हे राम! यह क्या हो गया।
(iv) अरे भाई! यहाँ आओ।
(v) अजी तुम उसे क्या मरोगे?
कर्म और सम्प्रदान कारक में अंतर
इन दोनों कारक में ‘को’ विभक्ति का प्रयोग होता है। कर्म कारक में क्रिया के व्यापार का फल कर्म पर पड़ता है और सम्प्रदान कारक में देने के भाव में या उपकार के भाव में को का प्रयोग होता है।
जैसे –
(i) विकास ने सोहन को आम खिलाया।
(ii) मोहन ने साँप को मारा।
(iii) राजू ने रोगी को दवाई दी।
(iv) स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो।
करण और अपादान कारक में अंतर
करण और अपादान दोनों ही कारकों में ‘से’ चिन्ह का प्रयोग होता है। परन्तु अर्थ के आधार पर दोनों में अंतर होता है। करण कारक में जहाँ पर ‘से’ का प्रयोग साधन के लिए होता है, वहीं पर अपादान कारक में अलग होने के लिए किया जाता है।
कर्ता कार्य करने के लिए जिस साधन का प्रयोग करता है उसे करण कारक कहते हैं। लेकिन अपादान में अलगाव या दूर जाने का भाव निहित होता है।
जैसे –
(i) मैं कलम से लिखता हूँ।
(ii) जेब से सिक्का गिरा।
(iii) बालक गेंद से खेल रहे हैं।
(iv) सुनीता घोड़े से गिर पड़ी।
(v) गंगा हिमालय से निकलती है।
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