र के विभिन्न रूप

 र के विभिन्न रूप



र के विभिन्न रूप

विभिन्न सामग्री में दिखने वाले अलग- अलग " र"को ' हम "र"की मात्रा समझ लेने की भूल करते हैं वास्तव में वह "र" मात्र  न होकर "र "के ही विभिन्न  प्रकार होते है जो कहीं स्वर सहित तो कहीं स्वर रहित  प्रयोग किए जाते हैं।

वास्तव में " र" हिंदी वर्णमाला का सत्ताईसवाँ व्यंजन वर्ण है।उच्चारण जीभ के अगले भाग को मूर्धा के साथ कुछ स्पर्श कराने से होता है । यह स्पर्श वर्ण और ऊष्म वर्ण के मध्य का वर्ण है । इसका उच्चारण स्वर और व्यंजन का मध्यवर्ती है; इसलिये इसे अंतस्थ वर्ण कहते हैं । इसके उच्चारण में संवार, नाद और घोष नामक प्रयत्न होते हैं ।और हम सभी इस बात से अवगत है की व्यंजन वर्णों की कोई मात्रा नहीं होती. चलिए देखते हैं कि' र के कितने रूप है।

1. सामान्य 'र' 

2. रेफ "र"( र्य)

3. पदेन "र"(/  ,^)

 "र" का सामान्य रूप

सामान्य "र" के प्रयोग से हम सभी अवगत हैं । यह पूर्ण "र "स्वर के साथ प्रयुक्त होता है। और यही "र"का सामान्य रूप कहलाता है।

जैसे –

रमेश= र् +अ+म्+ए+श्+अ।

रवि=र्+व्+इ।

इन सभी शब्दों में "र" वर्ण स्वर के साथ प्रयुक्त हुआ है जो एक पूर्ण

" र" के रूप में लिखा गया है। इसे ही "र"का सामान्य रूप कहते है।

"र"का रेफ रूप( र्प)

जब "र" आधा होता है तथा स्वर रहित लिखा जाता  तब वह 'र" अपने पीछे वाले वर्ण पर जा कर जुड़ जाता है तथा यह वर्ण के ऊपर लगाया जाता है तथा "र"का उच्चारण उस वर्ण से पहले किया जाता है जिस पर यह रेफ"र"लगा होता है।

यह भी विशेष उल्लेखनीय है की रेफ़ कभी भी  शब्दों के प्रथम वर्ण पर नहीं लगता है।

जहाँ "र "आधा आता है वहाँ "र" रेफ ( सर्प)रूप को लिखा जाता है क्यों कि मानक भाषा में र" के अर्ध रूप को स्वीकृत नहीं किया गया है इसलिए अर्ध "र "को रेफ रूप में लिखा जाता है।

जैसे–

वर्ग=व्+अ+र्+ग् +अ।

गर्मी =ग्+अ+र्+म्+ई।

हम इन उदाहरण से समझ चुके होंगे कि यहां प्रयुक्त "र"स्वर रहित होने के कारण अर्ध है इसलिए यह रेफ के रूप में प्रयोग किया गया है।जो अपने पीछे उच्चारित होने वाले वर्ण  के ऊपर जाकर  लग गया है।

"र"का पदेन (/।  ,^) रूप।

इस "र" का प्रयोग व्यंजन वर्णों के पद/पैर या पाई में होने के कारण इस "र" को पदेन कहा जाता है।

यह "र" पूरा होता है यानी स्वर के साथ होता है तथा यह स्वर रहित व्यंजन वर्णों के बाद लिखा जाता है तब यह "र"अपने पहले वाले वर्ण   पर  जा कर नीचे जुड़ जाता है। 

इस प्रकार के "र"के दो रूप होते हैं -

1.  तिरछी डंडी के रूप में(/)

2. काकपदीय रूप में( ^)

तिरछी डंडी वाले "र"का उपयोग उन व्यंजन वर्णों के साथ होता है जो नीचे से गोलाकार न होकर जिनमें सीधी रेखा / डंडी  या पाई होती है।

जैसे –

प्रभात=प्+र्+अ+ भ+आ+त्+अ

ग्रह -ग्+र्+अ+ह्+अ।

जैसा कि हम देख रहे है उपर्युक्त शब्दों में " र " स्वर के साथ है किंतु  उसके पहले वाला वर्ण स्वर रहित (आधा) है इसलिए उसे सहारा देने के लिए "र" उसकी पाई पर जा कर तिरछी  रेखा के रूप में जुड़ गया है।

इसके विपरित जो व्यंजन वर्ण नीचे की ओर से गोलाकार होते हैं

अर्थात् जिनकी पाई नहीं होती उसमें काकपदीय "र"(^) का प्रयोग होता है। यह भी व्यंजन वर्णों के नीचे ही लगाया जाता है।

जैसे –

ट्रक  = ट्+र्+अ+क्+अ।

ड्रम=ड्+र्+अ+म्+अ।

ड्रेस=ड्+र्+ए+स्+अ।

उपर्युक्त सभी उदाहरण में प्रयुक्त "र"काकपदीय (^)रूप में  अपने पहले आए स्वर रहित (आधे) व्यंजन वर्णों के साथ नीचे लगे हुए हैं।

हमारे लिए यह जानना भी आवश्यक है की नीचे से गोलाकार व्यंजन वर्ण "द" इसका अपवाद है। क्योंकि नीचे से गोलाकार होने पर भी इसके साथ  तिरछी डंडी वाले पदेन "र"का प्रयोग होता है न की काकपदीय "र"का चूंकि व्यंजन वर्ण "द"में पहले से ही नीचे की ओर एक डंडी होती है ।

यह भी देखा गया है की सामान्यतः"ऋ "की मात्रा को इंगित करने वाली ( पृ )जो किसी व्यंजन वर्ण के पाई  पर  लगी होती है को भी "र" समझ लेने की भूल करते है जो वास्तव में "र"  का रूप नही होती और न ही  अर्ध " ऋ" । यह तो वास्तव में ऋ की मात्रा होती है ।  यहाँ भी "ऋ"की मात्रा जिस व्यंजन पर लगी होती है वह स्वर रहित अर्थात अर्ध होता है जिसे "ऋ" की मात्रा अवलंबन प्रदान करती है।

जैसे –

गृह=ग्+ऋ+ह्+अ ।

वृत=व्+ऋ+त्+अ।

कृपा=क्+ऋ+प्+आ।

 यह इन उदाहरणों से हम समझ पा रहे है कि "ऋ" की मात्रा से पहले जो व्यंजन वर्ण है वह स्वर रहित हैं जिन्हे "ऋ" से अवलंबन प्राप्त हो रहा है।

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