दिल्ली सल्तनत की स्थापना /DILLI SALTNAT KI STHAPNA/gulam vansh/

 दिल्ली सल्तनत की स्थापना

 (सन्1206 से 1290 ई.)



 सन् 650 ई  से 1200 ई  के बीच भारत के कई छोटे - छोटे राज्यों में बंटा हुआ था।  लेकिन 1200  के बाद उत्तर भारत में   दिल्ली के आस - पास तुर्को का एक राज्य बना।  इस राज्य के शासकों ने लगभग पूरे भारत पर अपना शासन स्थापित किया।  इसे ही हम 'दिल्ली सल्तनत' के नाम से जानते हैं।  अरबी भाषा में शासकों को सुल्तान ने कहा था।  इसी कारण उनके राज्य को सल्तनत कहा गया।  इसमें पांच वंश शामिल हैं -1 गुलाम वंश, 2 . तुगलक वंश, 3. खिलजी वंश, 4. सैय्यद वंश, 5. लोदी वंश।  

अब हम  गुलाम वंश के बारे में जानेंगे। 

मुहम्मद गोरी 



उन दिनों भारत के उत्तर पश्चिम राज्य अफगानिस्तान में, तुर्किस्तान से आए तुर्क सुल्तानों ने अपना राज्य स्थापित किया।  ये सुल्तान अपने राज्यों को बढ़ाने के लिए आपस में लड़ते थे।  इन्हीं राज्यों में से एक था 'गोर जिसका सुल्तान था मुहम्मद गोरी।  वह भी कई तुर्की  सुल्तानों से लड़ा लेकिनख्वारिज्म (पूर्वी ईरान का एक राज्य) के शाह से उसे जीत नहीं मिली।  इसलिए अपने राज्य को बढ़ाने के लिए उसके पास भारत की ओर बढ़ने के अलावा और कोई उपाय नहीं था।  उन्होंने सबसे पहले पंजाब क्षेत्र के मुल्तान को जीता और फिर गुजरात को जीतने के लिए बढा।  उन दिनों समुद्री व्यापार के कारण गुजरात राज्य काफी संपन्न और शक्तिशाली था।  लेकिन गुजरात के राजा मूल राज द्वितीय ने उन्हें 1178 ई।  । हरा दिया।  गुजरात में हारकर गोरी ने सोचा कि उसे पहले पंजाब पर पूरा अधिकार करना चाहिए।  पंजाब के शासक परावर नहीं थे इसलिए धीरे - धीरे गोरी ने पूरे पंजाब पर अपना अधिकार जमा लिया।  अब उसकी राज्य की सीमा पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमा तक पहुंच गई।  पंजाब को जीतने के बाद गोरी दिल्ली विजय की योजना बनाने लगा।  पृथ्वीराज चौहान तृतीय (रायपथौरा) उन दिनों दिल्ली और अजमेर पर चौहान वंश के राजपूत राजा पृथ्वीराज तृतीय शासन था।  वे वनवासी और महत्वाकांक्षी राजा थे।  मुहम्मद गोरी की तरह पृथ्वीराज भी अपने आसपास के राजाओं से लड़कर अपना राज्य बढ़ाना चाहते थे।  अतः उन्होंने गुजरात पर भी हमला किया लेकिन गोरी की तरह पृथ्वीराज भी राजा भीम से हार गए।  फिर उन्होंने पूर्व दिशा के राज्यों को जीतना चाहा, लेकिन असफल रहा।  अपने राज्य को बढ़ाने के लिए उनके पास भी एक ही उपाय था कि वह पंजाब की ओर बढ़े।  अब मुहम्मद गोरी और पृथ्वीराज के बीच युद्ध होना स्वाभाविक ही था।  

तराईन का युद्ध 

सन् 1191 ई।  में मुहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच "तराईन" नाम की जगह पर पहला युद्ध हुआ।  इसमें गोरी को पृथ्वीराज ने हरा दिया।  इस युद्ध में मुहम्मद गोरी बुरी तरह घायल की गई थी और मुश्किल से बचकर निकल पाया।  वापस लौटकर गोरी ने एक और युद्ध की तैयारी शुरू कर दी।  अगले साल 1192 ई  में "तराईन 'के मैदान में दोनों के बीच दूसरा युद्ध हुआ। 

 पृथ्वीराज की सेना बहुत बड़ी थी- उसमें पैदल सैनिक, हाथी व घोड़े थे।  कई छोटे राजा व सामंत अपनी - अपनी सेना के साथ पृथ्वीराज की मदद के लिए आए थे।  गोरी की सेना बहुत छोटी थी और उसमें हाथी नहीं थे।  लेकिन उसके पास तेज दौड़नेवाले घोड़े थे और कुशल सैनिक थे जो घोड़े पर चलते - चलते तीर चला सकते थे।  लगे और अपनी ही सेना में तबाही मचाने लगे।  अंत में इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई।  जब गोरी के प्रवासों ने पृथ्वीराज के हाथियों पर वार किया तो हाथी पीछे की तरफ दौड़ते हुए तराईन के दूसरे युद्ध के बाद दिल्ली में राजपूतों की जगह तुर्को का शासन स्थापित हो गया।  इसके बाद मुहम्मद गोरी के तुर्क सेनापतियों ने तेजी से पूरे उत्तर भारत को अपने कब्जे में कर लिया।

तुकों की सफलता के कारण

 तुर्की लोग इतनी तेजी से कैसे सभी प्रमुख राजपूत राजाओं को हरा पाया?  या राजपूत राजा उनसे क्यों हारे?  इन सवालों के बारे में इतिहासकार काफी सोच - विचार करते हैं और अलग - अलग इतिहासकारों के अलग - अलग मत भी है।  कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि राजपूत राजाओं के आपसी मतभेद भी एक प्रमुख कारण था।  इनमें राजा जयचंद की भूमिका महत्वपूर्ण थी।  कुछ और इतिहासकारों का मानना ​​है कि तुर्की इसलिए जीते क्योंकि उनके पास फुर्तीले, तीर चलाने वाले आश्रित थे।  वे युद्धभूमि में तेजी से दुश्मनों पर टूट पड़ते थे और अपना बचाव भी कर लेते थे अर्थात् उनके युद्ध करने के तरीके और साधन राजपूतों से बेहतर थे।  

 गुलाम से सुल्तान 

तराईन युद्ध के कुछ ही साल बाद गोरी की हत्या कर दी गई।  उस समय दिल्ली में उसके गुलाम अधिकारी व सेनापति थे जो उसी की शासन व्यवस्था देख रहे थे।  

आइये जाने की दिल्ली में गुलाम वंश की नींव किसने रखी ।गुलाम होकर भी ये शासक कैसे बने।

 उन दिनों तुर्किस्तान, ईरान आदि देशों में यह एक आम बात थी।  कुछ व्यापारी युवकों को खरीदकर उन्हें युद्ध कला और प्रशासन का प्रशिक्षण देकर सुल्तानों को बेच देते थे।  ये गुलामों को उनकी योग्यता के अनुसार काम और पद दिए गए थे।  इसके बदले उन्हें अधिक वेतन भी दिया जाता था।  कुछ योग्य गुलाम अधिकारी अपने मालिक के बाद शासक भी बने।  दिल्ली में मुहम्मद गोरी का गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक प्रशासन का काम देख रहा था।  गोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ने अपने आपको एक स्वतंत्र सुल्तान और दिल्ली को एक स्वतंत्र प्रांत घोषित कर दिया।  इस तरह वह दिल्ली का पहला सुल्तान बना।  उन्होंने दिल्ली में कुतुबमीनार का निर्माण प्रारंभ किया था।  कुतुबुद्दीन के बाद उसका गुलाम और दामाद इल्तुतमिश सुल्तान बना।  उन्होंने कुतुबमीनार का निर्माण कार्य पूर्ण बनाया।  इल्तुतमिश के सामने दो बड़ी समस्याएँ थीं- पहली, अपने ही अधिकारियों का व्यवहार और दूसरी पराजित राजपूत राजपरिवार का व्यवहार।  सल्तनत के बड़े अधिकारी व सेनापति सुल्तान से दबकर नहीं रहना चाहते थे और मनमानी करना चाहते थे।  इस कारण सुल्तान अपने प्रशासन को मजबूत नहीं कर पा रहा था।  इसका फायदा उठाकर पुराने राजाओं के वंश के लोग सलतनत का विरोध करने लगे।  वे गाँव के किसानों से लगान इकट्ठा करके स्वयं रख लेते थे।  किंतु राजकोष में जमा नहीं करते थे।  वे सड़कों पर आने - जाने वाले यात्रियों और व्यापारियों को लूट लेते थे।  इस प्रकार सल्तनत कमजोर होने लगी थी।  सुल्तानों के आदेशों का पालन  केवल कुछ शहरों में ही होता था। 











इल्तुतमिशने प्रशासन को ठीक करने के लिए चालीस योग्य गुलामों को ऊँचे पद दिया।  वे सब सुल्तान के प्रति वफादार रहकर उसकी सेवा करते रहे।  उनमें से कई को इक्तादार बनाया गया था।  इक्तादारों का काम अलग  अलग प्रांतों में रहकर वहाँ का प्रशासन संभालना, विद्रोहों को दबाना और गाँवों से लगान वसूलना। 

 इस तरह जो लगान इकट्ठा होता था, उसे अपने वेतन और प्रशासन के खर्च के लिए रखना पड़ता था।  ये इक्तकों का समय - समय पर एक प्रांत से दूसरे प्रांत में तबादला होता रहता था।  पिता के बाद बेटे को उसका इक्ता या पद विरासत में नहीं मिला था।  

रजिया सुल्तान

इल्तुतमिश के बाद उनकी बेटी रजिया दिल्ली की गद्दी पर बैठी।  वह दिल्ली की गद्दी पर बैठनेवाली एकमात्र महिला शासक थी।  गद्दी पर बैठने के बाद वह पुरुषों के समान चोंगा और टोपी पहनती थी।  वह घोड़े की सवारी करती थी और किसी योग्य राजा की भाँति राज्य का काम - काज सँदलती थी।  रज़िया ने अपने पूरे राज्य में शांति व्यवस्था कायम की।  लेकिन तुर्क सरदार अपनी बात माननेवाले को गद्दी पर बैठाना चाहते थे, जिसे वे अपने इशारों पर नचा सकते हैं।  उन्हें जल्दी ही पता चल गया कि रजिया भले ही महिला है लेकिन वह उनकी कठपुतली बनने को तैयार नहीं है।  अपने गुणों के बावजूद रजिया कुछ खास नहीं कर पाईं, क्योंकि जब उसने अपने प्रति वफादार सरक्षकों का एक समूह तैयार किया और अवैध तुर्को को बड़े पद देना शुरू किया तो तुर्क सरक्षकों ने उसका विरोध शुरू कर दिया और उसकी हत्या कर दी।  

बलबन



रजिया के बाद दिल्ली का महत्वपूर्ण और शक्तिशाली सुल्तान गयासुद्दीन बुलबन था।  उन्होंने इल्तुतमिश द्वारा स्थापित 40 गुलामों के दल का एक सदस्य था।  तुर्क सरदार (भावना) इस समय बड़े प्रतिद्वंद्वी हो गए थे और वे सुल्तान के सम्मान का भी ध्यान नहीं रखते थे।  वे सुल्तान के विरुद्ध षडयंत्र रचा करते थे और सुल्तान को धमकी देते रहते थे।  बल्बन के सामने इन सरदारों को दबाना सबसे गंभीर समस्या थी।  धीरे - धीरे  परंतु दृढ़ता से बल्वन ने उनकी शक्ति को नष्ट कर दिया और सरदारों को राजभक्त बनाने में सफलता प्राप्त की।  बलबन सुल्तान की निरंकुश शक्ति पर विश्वास था।  उन्होंने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि सुल्तान की शक्ति को कोई चुनौती नहीं मिली।  वह कहता था कि राजा "ईश्वर की परछाई" और धरती पर उसकी उपस्थिति है।  उन्होंने लोगों को सुल्तान के सामने सिजदा (सिर झुकाना) और पायबोस (राजा के पैर चूमना) करना कर दिया।  तुर्क सरदार बल्बान की ताकत और कठोरताबहुत भयभीत थे कि उन्हें उनका आदेश मानना ​​पड़ा।  बलबन की मृत्यु के कैकुबाद शासक बना लेकिन तीन साल के बाद ही उसके वंश का अंत हो गया।  

दिल्ली के प्रारंभिक तुर्क सुल्तानों ने एक नई शासन व्यवस्था की स्थापना की।  उनके शासनकाल में मध्य एशिया के प्रतिद्वंद्वी शासक, चंगेज खान और अन्य मंगोलों का आक्रमण हुआ, जिसका उन्होंने सफलतापूर्वक मुकाबला किया और दिल्ली के शासन को मजबूत किया।  उस समय पूरे मध्य और पश्चिमी एशिया में मंगोलों का आक्रमण हो रहा था, लेकिन  मंगोल दिल्ली के सुल्तान को परजित नहीं कर पाये और इस अवधि में भारत मंगोल आक्रमण से बच गया। 

 भारत में तुर्क राज्य स्थापित होने से ईरान इराक, तुर्किस्तान, खुरासान आदि देशों से लोग यहां आकर बसने लगे।  सुल्तानों के समय  इतिहास की कई पुस्तकें लिखी थीं जिनमें शासक के समय में क्या-क्या बातें घटित हुईं, उनके विवरण हमें मिलती है।  यह ये तुर्क अपने साथ  अपने रीती रिवाज व धर्म लेकर आए थे।जिससे हमारी भारतीय संस्कृति फलीफुली और विकसित और समृध्द हुई।

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