रीति संप्रदाय की अवधारणा
रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने रीति को " काव्य की आत्मा " स्वीकार करते हुए घोषणा की -
"रीतिरात्मा काव्यस्य "
भरतमुनि ने चार प्रकार की रीति - आवन्ती, दक्षिणात्मा, पाँचाली और ऑन्गमागधी स्वीकार की है।
अग्निपुराणकार ने भी रीति की संख्या चार मानी है। उनके अनुसार रीति के भेद वैदर्भी, गौड़ी, पाँचाली और लाटी हैं।
आचार्य वाणभट्ट ने रीति का नाम तो नहीं लिया है , पर चार भागों में भाषा का जो निम्नलिखित रूप बताया है, वह रीति ही है -
" उत्तर दिशा के लोग श्लेष बहुल, पश्चिम दिशा के लोग अर्थमात्र , दक्षिण दिशा के लोग उत्प्रेक्षामय और गौड़ देश के लोग आडम्बर वाली भाषा बोलते हैं। "
आचार्य वामन ने विशिष्ट पद रचना को रीति कहा है। विशेष का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा -
"विशेषो गुण:"
गुणों का अपने में समावेश करना। गुण वास्तव में शब्द के होते हैं।
इसी आधार पर आचार्य मम्मट ने रीति के भेद न बताकर गुणों के तीन भेद - प्रसाद, ओज और माधुर्य बताये हैं। अग्निपुराणकार ने बोलने की कला को रीति कहा है।
' सरस्वती कंठाभरण ' के रचयिता महाराज भोज ने रीतियों को मार्ग कहा है। राजशेखर ने अपने ग्रंथ ' काव्यमीमांसा ' में रीति का अधिकारी सुवर्णनाम को बताया है।
रीती के भेद
1. वैदभी रीति –
■ इस रीति में सुकोमल एवं सुकुमार (श्रुतिमधुर एवं संगीतात्मक) वर्णों का प्रयोग किया जाता है।
■ इस रीति में संयुक्ताक्षरों का अभाव पाया जाता है।
■ इस रीति में ’ट’ वर्गीय वर्णों (विशेषतःमहाप्राण वर्णों ठ, ढ) का अभाव पाया जाता है।
■ इस रीति में सामासिक पदों का भी पूर्ण अभाव पाया जाता है।
■ यह रीति शृंगार, हास्य, करुण इत्यादि रसों की रचना के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
■ आचार्य दण्डी ने इस रीति में इस रीति में अपने द्वारा प्रतिपादित सभी दस गुणों का समावेश माना है, परन्तु आचार्य मम्मट इसमें केवल ’माधुर्य’ गुण ही स्वीकार करते है।
■ प्रारम्भ में ’विदर्भ’ प्रदेश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयुक्त किये जाने के कारण इसका नाम वैदर्भी रीति पङा है।
’’माधुर्यव्यंजकैर्वर्णै रचना ललितात्मिका।
अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यतै।।’’
काव्य लक्षण क्या होते है
उदाहरण
(अ) ’’राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परिछाँहि।
यातै सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाँहि।।’’
प्रस्तुत पद में संयुक्ताक्षरों एवं सामासिक पदों का तो पूर्ण अभाव है। ’ट’ वर्गीय वर्णों के अन्तर्गत केवल दो जगह अल्पप्राण ’ट’ वर्ण का प्रयोग हुआ है। इसकी पदरचना सुकोमल है। अतएवं यहाँ वैदर्भी रीति है।
(ब) ’’देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिकै करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहीं नैननि के जल सों पग धोये।’’
(स) ’’रस सिंगार मज्जन किए कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु रंजनु हँू बिना, खंजनु गंजनु नैन।।’’
2. गौड़ी रीति-
■ इस रीति में कठोर वर्णों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
■ इस रीति में सामासिक पदों एव संयुक्त वर्णों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
■ इस रीति में ’ट’ वर्गीय महाप्राण ध्वनियों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
■ यह रीति वीर, रोद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों की रचना के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है।
■ आचार्य दण्डी ने इस रीति में ’ओज’ व ’कांति’ गुणों की प्रधानता मानी जाती है जबकि आचार्य मम्मट इसमें ओज गुण की प्रधानता मानते है।
■ प्रारम्भ में ’गौड’ प्रदेश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयुक्त किये जाने के कारण इसका नाग गौड़ी रीति पङ है।
’’ ओजः प्रकाशकैर्वर्णैर्बन्ध आडम्बर पुनः।
समासबहुला गौड़ी वर्णैः शेषैः पुनद्र्वयोः।।’’
उदाहरण-
(अ) हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमत्र्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढै चलो बढै चलो।।
काव्य प्रयोजन क्या है
प्रस्तुत पद में अनेक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग हुआ है। ’हिमाद्रि’, ’स्वयंप्रभा’, ’समुज्ज्वला’, ’आमत्र्य’ जैसे अनेक सामासिक पदों का प्रयोग हुआ है। ’दृढ’, ’बढै’ जैसे पदों में ’ट’ वर्गीय महाप्राण ध्वनियों का प्रयोग हुआ है। अतएव यहाँ गौड़ी रीति मानी जाती हैै।
(ब) बोल्लहिं जो जय-जय मुण्ड-रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावही।
खप्परन्हि खग अलुज्झि जुज्झहिं भटन्ह दहावहीं।
(स) हय रुण्ड गिरे गज झुण्ड गिरे, कट कट अवनि पर मुण्ड गिरे।
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे, लङते-लङते अरि झुण्ड गिरे।।
(द) सृष्टि दृष्टि के अंजन रंजन ताप विभंजन बरसो।
व्यग्र उदग्र जगज्जननी के अये अग्रस्तन बरसो।।
3. पांचाली रीति
■ यह रीति वैदर्भी एवं गौड़ी दोनों के बीच की रीति मानी जाती है।
■ इसमें संयुक्ताक्षरों, सामासिक पदों एवं ’ट’ वर्गीय वर्णों का भी कुछ मात्रा में प्रयोग किया जा सकता हैं।
■ यह रीति भी वैदर्भी की तरह शंगार, हास्य, करुण आदि रसों की रचना के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
■ आचार्य दण्डी इस रीति में प्रसाद व माधुर्य गुणों की प्रधानता मानते है, जबकि आचार्य मम्मट इसमें केवल प्रसाद गुण की प्रधानता मानते है।
■ प्रारम्भ में पंचाल प्रदेश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयोग में लिये जाने के कारण इसका नाम पंाचाली रीति पङा है।
’’समस्त पञ्चषपदो बन्धः पाञ्चालिका मता’’(विश्वनाथ)
उदाहरण-
(अ) या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौं निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।
खानि कबौं इन आँखिन ते ब्रज के बन बाग तङाग निहारौं।
कौटिक ह्वै कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।
प्रस्तुत पद में सामासिक पदों का तो पूर्ण अभाव है परन्तु कुछ स्थानों पर ’ट’ वर्गीय वर्णों एवं सयुक्तक्षरों का प्रयोग हो गया है, अतएव यहाँ पांचाली रीति मानी जाती है।
(ब) राति न सुहात, न सूहात परभात आली।
जब मन लागि जात काहू निरमोही सौ।।
(स) मैंने विदग्ध हो जान लिया अन्तिम रहस्य पहचान लिया।
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।।
(द) युग-युग चलती रहे कठोर कहानी, रघुकुल में थी एक अभागिन रानी।
निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा, धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।।
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